ज्ञान द्वारा अज्ञानता मिटाकर विजयादशमी पर्व मनाएँ-स्वामी प्रभाकर नन्द
आजमगढ़। ईश्वर प्रेमियों के लिए दशहरा, दशमी या विजयादशमी आत्म चिंतन का पर्व है।यह पर्व हमें सोचने पर विवश करता है कि रावण को आज तक क्यों जलना पड़ रहा हैऔर इसके विपरीत प्रभु भक्तों को आज भी पूजा जाता है। एक ओर सुग्रीव है जिसने प्रभु श्री राम के चरणों में शीश झुकाया और प्रभु का अनन्य भक्त बनगया। वहीं दूसरी ओर दसग्रीव है, तीनों लोकों पर विजय प्राप्त करने वालाप्रभु श्री राम का प्यारा नहीं बन पाया।यदि गहराई से देखा जाए तो एक ही कारण उभरकर सामने आता है और वह है ‘ग्रीव’ अर्थात गरदन। रावण के दस शीश हैं परन्तु ‘सु’ भाव सुंदर नहीं हैं। जबकिबाली के छोटे भाई सुग्रीव के पास एक ही शीश है परन्तु ‘सु’ भाव सुंदरता सेसजी हुई है। सुंदरता का संबंध यहाँ बाह्य जगत से नहीं अपितु आध्यात्मिक जगतसे है। जो शीश भक्ति के सागर में डूब जाए, प्रभु के चरणों में नतमस्तक होजाए वही सुंदर है। परन्तु जो ग्रीवा अहंकार से अकड़ जाए और प्रभु चरणों मेंझुकने का गुण भूल जाए वह बदग्रीव ही कहलाती है। आखिर क्या अंतर था दोनों के दृष्टिकोण में कि एक को हर दशमी पर जलाया जाता है और एक की गणना आज भीप्रभु श्री राम के परम भक्तों में की जाती है?
सुग्रीव के अंदर संतों के प्रति विश्वास और आदर भाव था। उसके अंदर एक विशेष गुण था। जब भी उसके जीवन में कोई उलझन आई तो उसके हल के लिए उसने तत्क्षण साधु की शरणागत ली। भगवान श्रीराम और लक्ष्मण जी की ऋषिमुख पर्वत पर आगमन की सूचना मिलने पर सुग्रीव समझनहीं पा रहा था कि यह दोनों सुंदर युवक बाली के भेजे हुए उसके दुश्मन हैं या फिर कोई कल्याणकारी मित्र? दुविधा कि इस घड़ी में उसने संत हनुमान जी की शरण ली। वहीं दूसरी ओर हनुमान जी जब रावण कीसभा में पहुंचे तो उसने उनका अपमान किया। यही प्रमुख कारण था किब्राह्मण कुल में जन्म लेकर, महाऋषि का पुत्र होते हुए भी रावण राक्षस पदको ही प्राप्त हुआ। रावण की दृष्टि मलीन थी इसीलिए तो उसे एक महान संत मेंकेवल साधारण वानर ही दिखायी दिया और उनका निरादर किया।सुग्रीव और दसग्रीव दोनों के ही मन शंकालु प्रवृत्ति के थे। परन्तु दसग्रीवकी प्रभु राम के प्रति शंका ने उसे उनका दुश्मन बना दिया। वहीं सुग्रीव नेभी प्रभु राम पर शंका की परन्तु अपनी शंका को सहज भाव से प्रभु चरणों में रखकर शंका का निवारण किया। उधर दसग्रीव ने ऐसे विचारों और व्यक्तियों कासंग किया जो उसके शंकालु विचारों को और पुख्ता करते थे। मन भी दोनों का अहंकारी था परन्तु सुग्रीव के अहंकार की दीवार मिट्टी जैसी और दसग्रीव की चट्टान जैसी मजबूत थी। माया के भ्रमित करने पर सुग्रीव ने वैराग्य को अपने हृदयासन पर स्थान दिया। तो वहीं दसग्रीव ने वैराग्य को इंद्र द्वारा मरवाने की कोशिश की।दसग्रीव भगवान शिव को अपना इष्ट मानता था और सुग्रीव प्रभु श्री राम को। दोनों ही इष्ट प्रथम बार अपने साधकों के पास स्वयं चल कर गए। सुग्रीव नेइसे प्रभु की कृपा समझा और उसके पश्चात वह ही सदैव अपने इष्ट के पास चलकरगया। वहीं दसग्रीव की हठ के कारण भगवान शिव को स्वयं प्रतिदिन चल कर उसकेपास आना पड़ता था। दसग्रीव को यह अहं था कि वह भगवान शिव का इतना बड़ा भक्त है कि स्वयं त्रिलोकीनाथ शिव को उससे पूजाकरवाने के लिए प्रतिदिन लंका आना पड़ता है। भाव कि उसने भक्ति को भी अहंकारका साधन बना लिया था। रावण के अहंकार की अग्नि में उसकी लंका और सम्पूर्ण कुल जलकर राख होगए। सिर्फ श्री राम ही नहीं उन्हें मानने वाला हर भक्त रावण को जला करअज्ञानता पर ज्ञान की विजय के इस पर्व को सदियों से मनाता चला आ रहा है।दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ।
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